Wednesday, January 27, 2010

तुमने कुछ कहा


तन्हाई के गलियारों से

सांझ के बहते झरने से

घर लौटते पंछियों के

कलरव के बीच से

गुजरते हुए

हंसों सी सच्ची छलकती

मुस्कान में से,

क्षितिज के किनारे से होते हुए

छलकती, महकती, मदमाती

कुछ उलझती , कुछ सुलझती

हिम सी ठंडक हथेलियों में लिए

चंदन सी महक

चिड़ियों की चहक

लिए हरसिंगार के फूलों की

खुशबू के झोकें के

साथ अन्दर आकर

हलके से गाल थपथपाकर

बालों को ज़रा संवारकर

हौले से कान में तुमने कुछ कहा...

जरुरत


कुर्सी पर टेक लेकर

पीछे झुकती हूँ

तो डर लगता है,

पता है कि दीवार है

सहारे के लिए

पर जरुरत है किसी

तीसरे हाथ की

मुझे थामने के लिए।

डर


अनिर्णय

सी

स्थिति

में

परेशानियों

से

दूर भागते हुए

रात में उन

तारों के साथ

जलती हूँ,

सुबह से।

रात बिताती हूँ आँखें फाड़ कर

तकती हूँ शून्य को

और डरती हूँ

सुबह से।

नारी मन


यथार्थ के धरातल पर विचरता

यह है भावनाओं का दर्पण
सुरभित, कुसुमित पुष्पों का तन

यह है नारी मन।
मानो एक अथाह सागर

कि जिसमें अगणित मोती

अनंत लहरें इतनी

ना नारी स्वयम जाने कितनी।

पल्लवित हो, मुखरित हो

सांझ का ढलकता आँचल

वात्सल्य रस के कुंड में

नहाकर जैसे अभी -अभी निकली हो।

प्रात की ममतामई भावना बदलती है
फिर सांझ के स्नेह्सिक्त दीये में।
कल्पना ,यथार्थ का संतुलन

सक्षम इतनी की जीते मृत्यु का गगन

यह है नारी मन।

अक्स


रिश्तों के

दरियों में

देखती हूँ

अपना

धुंधला

अक्स

पानी की पतली परत

के नीचे झिलमिलाते से बुलबुले

बनते हैं, बिगड़ते हैं

एक बार फिर,

लहरों के साथ

बह जाता है

मेरा धुंधला अक्स।

गुलाब की पंखुडियां



आज भी महकती हैं

तुम्हारे गुलाब की कलियाँ

मेरे अंतरंग में।

खुलती हथेलियों में

जब गुलाब की पंखुडियां

अलसाई सी आंख खोलती हैं

तब मदमाते, लहराते तुम आते हो।

हर सांझ

बनते हैं कई किरदार मेरी कल्पनाओं में

बनते हैं, बिगड़ते हैं

रह जाते हो तो तुम

और वही

तुम्हारी गुलाब की पंखुडियां...