Wednesday, February 3, 2010

न रात है

न कुहासा है

कोई बुझा सवेरा भी नहीं

सांझ का अंतिम उजाला है शायद..

रिस-रिस कर दब जाती है

चाह कहीं मन में

कई गूंजती खामोशियाँ भी नहीं

नीले कांच से छलकती उदास चांदनी है शायद..

छाने हैं कई फलक

कई दर्रों में भटके

उजड़े काफिलों से बहार तक

टटोला है तुझे.

गीला-गीला सा लगता है

आसमाँ भी,

जाने नमी आसमाँ की है

या इन आँखों की अमानत है नमी.

बरसते बादल भी ढूंढ़ते हैं

मेरा वजूद,

इन्ही बूंदों में छिटक गया है शायद..

न रात है न कुहासा है

कोई बुझा सवेरा भी नहीं

सांझ का अंतिम उजाला है शायद..