न रात है
न कुहासा है
कोई बुझा सवेरा भी नहीं
सांझ का अंतिम उजाला है शायद..
रिस-रिस कर दब जाती है
चाह कहीं मन में
कई गूंजती खामोशियाँ भी नहीं
नीले कांच से छलकती उदास चांदनी है शायद..
छाने हैं कई फलक
कई दर्रों में भटके
उजड़े काफिलों से बहार तक
टटोला है तुझे.
गीला-गीला सा लगता है
आसमाँ भी,
जाने नमी आसमाँ की है
या इन आँखों की अमानत है नमी.
बरसते बादल भी ढूंढ़ते हैं
मेरा वजूद,
इन्ही बूंदों में छिटक गया है शायद..
न रात है न कुहासा है
कोई बुझा सवेरा भी नहीं
सांझ का अंतिम उजाला है शायद..
Wednesday, February 3, 2010
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वाह वाह वाह ! तारीफ के लिये शब्द कम पड जायेंगे ।
ReplyDeleteDhanyavaad....
ReplyDeleteBahot acchi kavita likhi hai apne ek dard chupa hua hai shayad
ReplyDeleteManoj ji achha laga jaankar ki apko mera likha pasand aaya...aise hi apna protsaahan dete rahiye.Dhanywad...
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