नारी मन
यथार्थ के धरातल पर विचरता
यह है भावनाओं का दर्पण
सुरभित, कुसुमित पुष्पों का तन
यह है नारी मन।
यह है नारी मन।
मानो एक अथाह सागर
कि जिसमें अगणित मोती
अनंत लहरें इतनी
ना नारी स्वयम जाने कितनी।
पल्लवित हो, मुखरित हो
सांझ का ढलकता आँचल
वात्सल्य रस के कुंड में
नहाकर जैसे अभी -अभी निकली हो।
प्रात की ममतामई भावना बदलती है
कि जिसमें अगणित मोती
अनंत लहरें इतनी
ना नारी स्वयम जाने कितनी।
पल्लवित हो, मुखरित हो
सांझ का ढलकता आँचल
वात्सल्य रस के कुंड में
नहाकर जैसे अभी -अभी निकली हो।
प्रात की ममतामई भावना बदलती है
फिर सांझ के स्नेह्सिक्त दीये में।
कल्पना ,यथार्थ का संतुलन
सक्षम इतनी की जीते मृत्यु का गगन
यह है नारी मन।
कल्पना ,यथार्थ का संतुलन
सक्षम इतनी की जीते मृत्यु का गगन
यह है नारी मन।
sach kaha nari tere roop anek
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