Wednesday, January 27, 2010

नारी मन


यथार्थ के धरातल पर विचरता

यह है भावनाओं का दर्पण
सुरभित, कुसुमित पुष्पों का तन

यह है नारी मन।
मानो एक अथाह सागर

कि जिसमें अगणित मोती

अनंत लहरें इतनी

ना नारी स्वयम जाने कितनी।

पल्लवित हो, मुखरित हो

सांझ का ढलकता आँचल

वात्सल्य रस के कुंड में

नहाकर जैसे अभी -अभी निकली हो।

प्रात की ममतामई भावना बदलती है
फिर सांझ के स्नेह्सिक्त दीये में।
कल्पना ,यथार्थ का संतुलन

सक्षम इतनी की जीते मृत्यु का गगन

यह है नारी मन।

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